मानव शरीर ही एकमात्र ऐसा शरीर है जिसमें जीव चेतना के उच्च आयामों को अनुभव कर सकता है। मानव शरीर के मेरुदण्डीय संरचना की वजह से ऐसा संभव है। मूलाधार निवासिनी ऊर्जा /शक्ति या प्रकृति को सुषुम्ना मार्ग से होते हुए सहस्रार स्थित शिव से मिलन ही मोक्ष है और फिर देहत्याग के समय ब्रह्मरंध्र से यह ऊर्जा बाहर निकले तो जीव संसार चक्र अर्थात पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। इसके लिए सनातन परंपरा में अनेक प्रकार की साधनाएँ हैं।
मुक्ति का यह प्रसाद किसी भी अन्य योनि के प्राणियों चाहे -जंतु, पशु, सरीसृप, जलचर, नभचर, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, देवता इत्यादि किसी को भी नहीं मिला है। यह प्रसाद केवल मनुष्य को ही है। इसके पीछे गूढ़ विज्ञान है। न केवल स्थूल षाटकौषिकीय शारीरिक संरचना बल्कि सूक्ष्म व कारण शरीर की अवस्था भी मनुष्य के लिए अनुकूल है कि वो मुक्ति या आत्मसाक्षात्कार और तत्पश्चात परब्रह्म साक्षात्कार कर सके। यह भूमि ऐसे असंख्य सिद्धों की तपस्थली है जिन्होंने मानव शरीर धारण कर परमात्म साक्षात्कार किया और के प्रकार की सिद्धियों को धारण किया। जिसे आप भगवान कहते हैं वो अनंत चेतना है जो सर्वव्यापी है। वो चेतना मानव शरीर में भी अति बहुलता से परिलक्षित होती है। मानव ही एक प्राणी है जो उचित साधना द्वारा उस अनंत चेतना की अनुभूति व उसका साक्षात्कार कर सकता है और तब वह समझ जाता है कि वही वह अनंत चेतना है और फिर उसे हर जगह स्वयं या ब्रह्म की ही अनुभूति होती है। यही अवस्था कैवल्य या निर्वाण की अवस्था होती है। इस अवस्था में जीव वह सब कर सकता है जो ईश्वर कर सकते हैं क्योंकि जीव की प्रज्ञा में अनंत की चेतना प्रस्फुटित हो जाती है। इसलिए कहा गया है ईश्वर ने मनुष्य को अपनी ही छवि में बनाया है। मानव देह में ही जीव नर से नारायण बन सकता है। अब आप समझ गयी होंगी कि मानव देह कितना मूल्यवान है।
मानव देह के अतिरिक्त अन्य किसी भी देह में आप कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि उपाय ही नहीं है। अन्य योनियों का शरीर धारण करने के बाद जीव केवल भोग पाता है। लेकिन मानव योनि के शरीर में जीव के पास भोगने के अलावा साधना के द्वारा अपनी गति/भाग्य निर्धारित करने की पूरी आजादी होती है। यह आज़ादी सहज नहीं मिलती। न जाने कितने जन्मों की साधना के पश्चात मानव शरीर पाने का सौभाग्य मिलता है लेकिन मानव शरीर में आने के पश्चात भी जीव के चित्त पर पूर्व पशु योनियों के कई पाशविक संस्कार रूपी बीज जमें हुए होते हैं जो कभी भी पाशविक प्रवृत्ति के रूप में रह रहकर मानव के स्वभाव में अभिव्यक्त होते रहते हैं और उनसे नीच स्तर के पशु कर्म करवा लेते हैं, फलस्वरूप जीव मानव देह धारण कर के भी मनुष्यत्व को पूरी तरह नहीं प्राप्त कर पाता। उसके कर्म मनुष्य होते हुए भी नीच योनियों के जीवों की तरह होते हैं जो उसे पुनः कर्मबन्धन में ही बांधते हैं और उसके मुक्ति में बाधा बन कर खड़े रहते हैं।
अतः मनुष्य केवल मनुष्यत्व को ही पूर्णतया धारण या प्रकट कर ले तो वह पूर्ण दिव्य हो जाए। लेकिन चूंकि मानव योनि में आने से पहले हम कई नीच योनियों में भी गुजरे होते हैं अतः चित्त पर उन योनियों की वृत्ति के कुछ कर्म संस्कार बीज रह ही जाते हैं जो हमारे दैनंदिन स्वभाव में परिलक्षित होते हैं। जैसे- हिंसा का भाव, जलन, ईर्ष्या, वैमनस्यता, दूसरों का बुरा चाहने की प्रवृत्ति, लालच, लोभ, काम, क्रोध, मत्सर, मोह इत्यादि ये सभी ऐसे स्वभावगत दोष हैं जो मनुष्य योनि के अपने दोष नहीं वरन अन्य योनियों से संचित संस्कार हैं और इन संस्कारों से मुक्ति सबसे सहजता से मानव शरीर में सम्भव है अतः चित्त पर जमे समस्त संस्कारों को विदग्ध कर के आत्मसाक्षात्कार करना हरेक मनुष्य के लिए सबसे अभीष्ट व अप्रत्यक्ष रूप से उनका सबसे प्रमुख लक्ष्य है। इसी में मानव जीवन की पूर्णता है।
हम सभी मानव और quora के लेखक भाग्यशाली हैं कि हमने मानव देह को धारण किया है अतः यह स्वर्णिम अवसर है कि हम साधना पथ पर चलकर आत्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करें।
मुक्ति पाने के बाद व्यष्टिगत चेतना या आत्मा समष्टिगत चेतना अथवा परमात्मा में विलीन हो जाती है। मुक्ति प्राप्त जीव की आत्मा का अस्तित्व सर्वव्यापक चेतना में समाहित हो जाता है।
गूढ़ विश्लेषण – आत्मा रूपी पुर के चारों ओर तीन पुर हैं – मन, बुद्धि और अहंकार। आत्मा + मन (चित्त) + बुद्धि + अहंकार = जीव। अर्थात जीव जब पुराने देह को त्याग कर नया देह धारण करता है (मरने के बाद नया जन्म लेता है) तो उसकी आत्मा के साथ उसके मन, बुद्धि और अहंकार भी उसकी आगे के जन्म की यात्रा पर साथ चलते हैं। मृत्यु पश्चात भी अन्तःकरण अर्थात मन, बुद्धि और अहंकार नष्ट नहीं होते हैं और जब तक जीव कैवल्य को नहीं प्राप्त कर लेता तब तक ये आत्मा को आच्छादित किये हुए जन्म पर जन्म लेते रहते हैं। अतः भले ही जीव कितने ही हज़ार जन्म क्यों न ले लिया हो किन्तु उसका मन, बुद्धि और अहंकार पुरातन होता है और इस वजह से उसके अवचेतन मन या अचेतन मन में पूर्व जन्म की समस्त स्मृतियां अंकुर रूप से सुषुप्तावस्था में होती है। अतः उचित साधना के द्वारा कोई भी मनुष्य अपने पिछले जन्मों की भी जानकारी हासिल कर सकता है।
आत्मा पर लगे इन तीन आवरण (मन, बुद्धि, अहंकार) को त्रिपुर समझ लें और जिसने इन्हें विध्वंस किया वही त्रिपुरारी अर्थात शिव हैं और यह तीन आवरण जिसके द्वारा विध्वंस हुआ वह है तीसरी आँख का खुलना यानी आत्मसाक्षात्कार की उपलब्धि। यही कदाचित मोक्ष है।
PS – उपरोक्त बातें मैंने अब तक जो भी आध्यात्मिक शास्त्र अध्ययन की है और उनमें निहित सूक्ष्म ज्ञान को मेरी सीमित बुद्धि ने जितना समझा है उसपर आधारित है। उपरोक्त बातों को पूर्ण यथार्थ न मानकर किसी सिद्ध परमहंस से पूछ कर ही अपनी शंका का निवारण करें। आपके इस प्रकार के प्रश्न Quora पे हम जैसे अज्ञानी लोग या कोई भी नहीं दे सकते और यदि उत्तर देंगे भी तो अनुभव पर नहीं बल्कि रटी-रटाई हुई पुस्तकीय ज्ञान पर आधारित ही होगी जो मिथ्या होगी। अतः मेरा यही सुझाव होगा कि ब्रह्मविद्या जैसी अत्यंत गूढ़ विषयों पर जानकारी किसी सिद्ध परमहंस से ही लें। ऐसे सिद्ध परमहंस भी आज के समय में मानव समाज में न के ही बराबर अथवा अत्यल्प हैं।

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